Thursday, August 11, 2011

औपचारिकता बन कर रह गया करवा चौथ




परसों ही करवा का वर्त का त्यौहार था। लेकिन करवा के वर्त के पहले ही समाचार-पत्रा को पढ़कर ऐसा लगा कि करवा का वर्त तो नाम मात्रा है। हमारे यूनिवर्सिटी की लड़कियों ने तो हद कर दी। उनको ये पता नहीं है कि करवा का वर्त क्या होता है। क्यों किया जाता है लेकिन फिर भी आधे से ज्यादा लड़कियों ने करवा का वर्त किया और चांद को देखने के लिए सारी हॉस्टल की छत पर लड़किया ही लड़कियां चॉंद निकलने का इंतजार कर रही थी। क्यूं भूखी रही उन्हें पता नहीं कि ये वर्त सिर्फ विवाहित स्त्राीयां ही कर सकती हैं। अभी तो तुम्हारा चांद खिला ही नहीं है खिलेगा तब अपने रंग चाव दिखाना।और एक हादसा जो समाचार पत्रा में देखने को मिला वह बहुत ही दर्दनाक था। वह सिरसा के करीब गांव में एक व्यक्ति की पत्नी करवा चौथ के एक दिन पहले अपना सामान उठाकर अपने घर पर चल देती है। उसके पति को गुस्सा आ जाता हैं और वो उसके हाथ को चक्कू से काट देता है। कहता है कल करवा का वर्त है तुझे मेरा कोई ख्याल नहीं है। पड़ोस की ग्रहणियों को देख अपने पति की खातिर क्या-क्या नहीं करती बेचारी। एक तु है जो चल दी अपना सामान उठाकर।
आज के परिवेस में नारी क्यों अपना मर्यादा भूलती जा रही है। उन्हें भगवान द्धारा दिए गए अपने परमपति परमेसवर पर भरोसा रखकर जी भरकर प्यार करना चाहिए। उन्हें इस बात का आभास होना चाहिए कि उनका धर्म क्या है। अपने धर्म को बड़े ही चाव से निभाना चाहिए। एक वो भी स्त्राी थी जिसने अपने पति को मार को सहकर भी करवा का वर्त किया। जब व्रत का सामान मंगवाती है तो उसका पति उसे पीटता है लेकिन वह उसे कहती है आप मुझे पीट रहे हो ये सब कुछ मैं आपके लिए ही तो कर रही हूं। एकदम से उसका ह्दय परिवर्तन होता हैं। उसको गहरा संताप लगता है। उसे अपनी का गलती का अहसास होता है।
लेकिन वर्तमान परिवेस का व्रत मात्रा छल और दिखावा है। व्रत का मतलब भूखे रहना ही नहीं बल्कि इसके पीछे बहुत बड़ी बात छिपी होती है। इसलिए सभी स्त्राीयों को बहुत ही प्यार से इस परम्परा को निभाना चाहिए। क्योंकि व्यक्ति की पहचान उसकी सम्यता संस्कृति से होती है। अपनी मान-मर्यादाओं को ध्यान में रखकर अपना धर्म निभाना चाहिए।

Poem


सन्दीप कंवल

अरे यारो, अरे ये कविता तो मुझे बिल्कुल ही समझ नहीं आई’’
फिर क्या हुआ मेरे यार, जो समझ में आ जाए वो कविता ही क्या,
लेकिन यारो, मैं जब 10 वीं क्लास में था। तो मैनें बहुत ही कविताओं के बारे में जान लिया था। वो भी कविता ही थी न।
अरे भैया, वो जमाना गया, जब वाली कविता सीधी-साधी होती थी। जिसे सभी आसानी से जान जाते थे। लेकिन अब तो कविता सभी कवितांए समझदार हो गई हैं। हर कविता पर कोई न कोई नया प्रयोग हो रहे हैं।
प्रयोग, कैसा प्रयोग, ये कविता कोई पढ़ कर सुनाने वाली थोड़ी है। ये तो नाम की कविता है भाई। नाम की कविता।
समझे नहीं यार,
अब कविता भी पहले जैसी नहीं रही, बहुत बदल गई यार,
कोई कविता पर नई कविता लिख रहा है। कोई कविता पर षोध कर रहा है।
यार, ये नये कवि भी अजब सी कविता लिखने लगे हैं
वो कैसी, जो किसी के समझ मेें ही नहीं आती, इनको ऐसी कविता लिखनी चाहिए जो समझ में आ जाए और उन्हें गुनगुनाया भी जा सके। जिससे कुछ प्रेरणा भी प्राप्त हो।
अरै भैया, कवि ऐसी कविताओं को लिख नहीं सकते, लेकिन ऐसी कविताएं लिखने से आम आदमी के समझ में आ जाएगीं लेकिन इससे कवि का स्टैंडर्ड डाउन हो जाएगा।
कविता तो इंसान है मेरे यार जो अपनी हरकतों से बता देती है दिल की बात ।बेषक उससे कुछ भी पूछा नहीं हो।।
चल छोड़ यार तेरी वाली कविता भी मेरे समझ में नहीं आई।
अरे भैया मैने पहले भी कहा था। और अब भी कह रहा हूं वो कविता ही क्या जा समझ में आ जाए।
उन्हें तो कोई उनके दिल में जगह बनाकर ही समझ सकता है। जो मैंने समझ लिया है।
धन्यवाद



Ranjiti.............me ......Netao ki........kali....................


बाबा पीर की जय
जब भी मनुश्य के दिल में दर्द होता है। तो कविता का जन्म होता है। या दिल अत्यधिक हर्शित होता है। तो कुछ लिखने का मन करता है। मानव मस्तिश्क में विभिन्न कलाएं छिपी होती हैं। पर उनको निकालने का तरीका मालूम नहीं होता है। कोई न कोई तरीका निकालकर उनको उजागर करता रहता है। या तो लोगों को हंसाकर, या लोगों को रूलाकर मनुश्य अपने कला के रंग बिखेरता रहाता हैं। जो मनुश्य अपनी कला को छिपाए रखता है वह अपनी कला को उजागर ही नहीं कर पाता है तो वो भी अपने भावों को किसी अन्य माध्यम से निकालता है। या तो अकेला सीसे के सामने अपनी बातों केा कहता होगा।
पर कला निकालने का तरीका हर किसी के पास नहीं होता। उसके बारे में या तो किसी षिक्षाविद् से सलाह लेनी पड़ती है।
पर कई समस्याएं सीने में घर कर जाती हैं। वे समस्याएं जो एक हंसते-खेलते परिवार को मातम में बदल जाती हैं। ये राजनीतिक पार्टियां बड़़ी-बड़ी जनसभाएं करती हैं। हजारों लोगों को भीड़ दिखाई जाती हैं। लेकिन कई बार वहां पर अफवाह फैलने पर भगदड़ मचने पर हजारों निर्दोस लोग मारे जाते हैं। रैलियों में आते समय दुर्घटनाएं होना आम बात हो गयाी है। पर ये सफेदपोस उसके परिवारवालों को दो या तीन लाख रूप्ये देकर सांत्वना देते हैं। क्या किसी बहन के जवान भाई की, मां के दुलारे बेटे की, पिता के बुढ़ापे का सहारे की कीमत तीन या चार लाख रूप्ये है। उनका घर से एक सदस्य कम हो गया। और ये सफेद पोस अपना मतलब निकालने के लिए उनके घर वालों को तीन लाख रूप्ये देकर खुष करने पर लगे होते हैं। इन नेताओं की ऐसी गंदी राजनीति पर धिक्कार है। पर इनको इससे कोई लेना-देना नहीं है। चुनाव के समय में रातों की नीदों को त्याग देते हैं, जनता के सामने लोक-लुभावना व्यवहार करके, ऐसे वादे करके जिनके पैर ही नहीं होेते। चुनाव जीतकर रफूचक्कर हो जाते हैं। चुनाव जीतने के बाद केार्इ्र वादा याद नहीं रहता क्योंकि एक लाल बत्ती वाली कार और नौकर, उन्हीं में सिमट कर रह जाते हैं।
लेकिन सोचने की बात यह है इन लोगों को कुर्सी पर बैठाने वाले कौन हैं वो हम ही तो हैं जो सिर्फ अपने भले की सोचकर ऐसे देषद्रोहियों को गदी पर बैठा देते हैं। जो कभी स्कूल में नहीं गया वो ही लोग संसद में कुर्सियों पर विराजमान होते हैं। देष की गदी की बेइज्जती करते है। ऐसे नेताओं को काल कोठरियों में डाल देना चाहिए। आम आमनी को अपनी समझदारी से बढ़िया नेता का चुनाव करके देष की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचाना चाहिए। तभी देष का भला हो सकता है। और देष का भविश्य उज्ज्वल हो सकता है।।

Tuesday, April 28, 2009

सत्यजीत राय

सत्यजित राय

सत्यजित राय (बंगाली: সত্যজিৎ রায় सहायता·सूचना शॉत्तोजित् राय्) (2 मई 1921–23 अप्रैल 1992) एक भारतीय फ़िल्म निर्देशक थे, जिन्हें 20वीं शताब्दी के सर्वोत्तम फ़िल्म निर्देशकों में गिना जाता है।[१] इनका जन्म कला और साहित्य के जगत में जाने-माने कोलकाता (तब कलकत्ता) के एक बंगाली परिवार में हुआ था। इनकी शिक्षा प्रेसिडेंसी कॉलेज और विश्व-भारती विश्वविद्यालय में हुई। इन्होने अपने कैरियर की शुरुआत पेशेवर चित्रकार की तरह की। फ़्रांसिसी फ़िल्म निर्देशक ज़ाँ रन्वार से मिलने पर और लंदन में इतालवी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत (Ladri di biciclette, बाइसिकल चोर) देखने के बाद फ़िल्म निर्देशन की ओर इनका रुझान हुआ।

राय ने अपने जीवन में 37 फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। इनकी पहली फ़िल्म पथेर पांचाली (পথের পাঁচালী, पथ का गीत) को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। यह फ़िल्म अपराजितो (অপরাজিত) और अपुर संसार (অপুর সংসার, अपु का संसार) के साथ इनकी प्रसिद्ध अपु त्रयी में शामिल है। राय फ़िल्म निर्माण से सम्बन्धित कई काम ख़ुद ही करते थे — पटकथा लिखना, अभिनेता ढूंढना, पार्श्व संगीत लिखना, चलचित्रण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार सामग्री की रचना करना। फ़िल्में बनाने के अतिरिक्त वे कहानीकार, प्रकाशक, चित्रकार और फ़िल्म आलोचक भी थे। राय को जीवन में कई पुरस्कार मिले जिनमें अकादमी मानद पुरस्कार और भारत रत्न शामिल हैं।




जीवनी

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा

सत्यजित राय, 1932सत्यजित राय के वंश की कम से कम दस पीढ़ियों पहले तक की जानकारी मौजूद है।[२] इनके दादा उपेन्द्रकिशोर राय चौधरी लेखक, चित्रकार, दार्शनिक, प्रकाशक और अपेशेवर खगोलशास्त्री थे। ये साथ ही ब्राह्म समाज के नेता भी थे। उपेन्द्रकिशोर के बेटे सुकुमार राय ने लकीर से हटकर बांग्ला में बेतुकी कविता लिखी। ये योग्य चित्रकार और आलोचक भी थे। सत्यजित राय सुकुमार और सुप्रभा राय के बेटे थे। इनका जन्म कोलकाता में हुआ। जब सत्यजित केवल तीन वर्ष के थे तो इनके पिता चल बसे। इनके परिवार को सुप्रभा की मामूली तन्ख़्वाह पर गुज़ारा करना पड़ा। राय ने कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कालेज से अर्थशास्त्र पढ़ा, लेकिन इनकी रुचि हमेशा ललित कलाओं में ही रही। 1940 में इनकी माता ने आग्रह किया कि ये गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में आगे पढ़ें। राय को कोलकाता का माहौल पसन्द था और शान्तिनिकेतन के बुद्धिजीवी जगत से ये खास प्रभावित नहीं थे।[३] माता के आग्रह और ठाकुर के प्रति इनके आदर भाव की वजह से अंततः इन्होंने विश्व-भारती जाने का निश्चय किया। शान्तिनिकेतन में राय पूर्वी कला से बहुत प्रभावित हुए। बाद में इन्होंने स्वीकार किया कि प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस[४] और बिनोद बिहारी मुखर्जी से इन्होंने बहुत कुछ सीखा। मुखर्जी के जीवन पर इन्होंने बाद में एक वृत्तचित्र द इनर आई भी बनाया। अजन्ता, एलोरा और एलिफेंटा की गुफ़ाओं को देखने के बाद ये भारतीय कला के प्रशंसक बन गए।[५]


चित्रकला


शान्तिनिकेतन में सत्यजित राय1943 में पाँच साल का कोर्स पूरा करने से पहले राय ने शान्तिनिकेतन छोड़ दिया और कोलकाता वापस आ गए जहाँ उन्होंने ब्रिटिश विज्ञापन अभिकरण डी. जे. केमर में नौकरी शुरु की। इनके पद का नाम “लघु द्रष्टा” (“junior visualiser”) था और महीने के केवल अस्सी रुपये का वेतन था। हालांकि दृष्टि रचना राय को बहुत पसंद थी और उनके साथ अधिकतर अच्छा ही व्यवहार किया जाता था, लेकिन एजेंसी के ब्रिटिश और भारतीय कर्मियों के बीच कुछ खिंचाव रहता था क्योंकि ब्रिटिश कर्मियों को ज्यादा वेतन मिलता था। साथ ही राय को लगता था कि “एजेंसी के ग्राहक प्रायः मूर्ख होते थे”।[६] 1943 के लगभग ही ये डी. के. गुप्ता द्वारा स्थापित सिग्नेट प्रेस के साथ भी काम करने लगे। गुप्ता ने राय को प्रेस में छपने वाली नई किताबों के मुखपृष्ठ रचने को कहा और पूरी कलात्मक मुक्ति दी। राय ने बहुत किताबों के मुखपृष्ठ बनाए, जिनमें जिम कार्बेट की मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊँ (Man-eaters of Kumaon, कुमाऊँ के नरभक्षी) और जवाहर लाल नेहरु की डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया (Discovery of India, भारत की खोज) शामिल हैं। इन्होंने बांग्ला के जाने-माने उपन्यास पथेर पांचाली (পথের পাঁচালী, पथ का गीत) के बाल संस्करण पर भी काम किया, जिसका नाम था आम आँटिर भेँपु (আম আঁটির ভেঁপু, आम की गुठली की सीटी)। राय इस रचना से बहुत प्रभावित हुए और अपनी पहली फ़िल्म इसी उपन्यास पर बनाई। मुखपृष्ठ की रचना करने के साथ उन्होंने इस किताब के अन्दर के चित्र भी बनाये। इनमें से बहुत से चित्र उनकी फ़िल्म के दृश्यों में दृष्टिगोचर होते हैं।[७]

राय ने दो नए फॉन्ट भी बनाए — “राय रोमन” और “राय बिज़ार”। राय रोमन को 1970 में एक अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला। कोलकाता में राय एक कुशल चित्रकार माने जाते थे। राय अपनी पुस्तकों के चित्र और मुखपृष्ठ ख़ुद ही बनाते थे और फ़िल्मों के लिए प्रचार सामग्री की रचना भी ख़ुद ही करते थे।


फ़िल्म निर्देशन

1947 में चिदानन्द दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ मिलकर राय ने कलकत्ता फ़िल्म सभा शुरु की, जिसमें उन्हें कई विदेशी फ़िल्में देखने को मिलीं। इन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में कोलकाता में स्थापित अमरीकन सैनिकों से दोस्ती कर ली जो उन्हें शहर में दिखाई जा रही नई-नई फ़िल्मों के बारे में सूचना देते थे। 1949 में राय ने दूर की रिश्तेदार और लम्बे समय से उनकी प्रियतमा बिजोय राय से विवाह किया। इनका एक बेटा हुआ, सन्दीप, जो अब ख़ुद फ़िल्म निर्देशक है। इसी साल फ़्रांसीसी फ़िल्म निर्देशक ज़ाँ रन्वार कोलकाता में अपनी फ़िल्म की शूटिंग करने आए। राय ने देहात में उपयुक्त स्थान ढूंढने में रन्वार की मदद की। राय ने उन्हें पथेर पांचाली पर फ़िल्म बनाने का अपना विचार बताया तो रन्वार ने उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया।[८] 1950 में डी. जे. केमर ने राय को एजेंसी के मुख्यालय लंदन भेजा। लंदन में बिताए तीन महीनों में राय ने 99 फ़िल्में देखीं। इनमें शामिल थी, वित्तोरियो दे सीका की नवयथार्थवादी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत्ते (Ladri di biciclette, बाइसिकल चोर) जिसने उन्हें अन्दर तक प्रभावित किया। राय ने बाद में कहा कि वे सिनेमा से बाहर आए तो फ़िल्म निर्देशक बनने के लिए दृढ़संकल्प थे।[९]

फ़िल्मों में मिली सफलता से राय का पारिवारिक जीवन में अधिक परिवर्तन नहीं आया। वे अपनी माँ और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही एक किराए के मकान में रहते रहे।[१०] 1960 के दशक में राय ने जापान की यात्रा की और वहाँ जाने-माने फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा से मिले। भारत में भी वे अक्सर शहर के भागम-भाग वाले माहौल से बचने के लिए दार्जीलिंग या पुरी जैसी जगहों पर जाकर एकान्त में कथानक पूरे करते थे।


बीमारी एवं निधन
1983 में फ़िल्म घरे बाइरे (ঘরে বাইরে) पर काम करते हुए राय को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनके जीवन के बाकी 9 सालों में उनकी कार्य-क्षमता बहुत कम हो गई। घरे बाइरे का छायांकन राय के बेटे की मदद से 1984 में पूरा हुआ। 1992 में हृदय की दुर्बलता के कारण राय का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया, जिससे वह कभी उबर नहीं पाए। मृत्यु से कुछ ही हफ्ते पहले उन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार दिया गया। 23 अप्रैल 1992 को उनका देहान्त हो गया। इनकी मृत्यु होने पर कोलकाता शहर लगभग ठहर गया और हज़ारों लोग इनके घर पर इन्हें श्रद्धांजलि देने आए।[११]


मुख्य लेख: सत्यजित राय की फ़िल्में

अपु के वर्ष (1950–58)

पथेर पांचाली में अपुराय ने निश्चय कर रखा था कि उनकी पहली फ़िल्म बांग्ला साहित्य की प्रसिद्ध बिल्डुंग्सरोमान पथेर पांचाली पर आधारित होगी, जिसे बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय ने 1928 में लिखा था। इस अर्ध-आत्मकथात्मक उपन्यास में एक बंगाली गांव के लड़के अपु के बड़े होने की कहानी है। राय ने लंदन से भारत लौटते हुए समुद्रयात्रा के दौरान इस फ़िल्म की रूपरेखा तैयार की। भारत पहुँचने पर राय ने एक कर्मीदल एकत्रित किया जिसमें कैमरामैन सुब्रत मित्र और कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता के अलावा किसी को फ़िल्मों का अनुभव नहीं था। अभिनेता भी लगभग सभी गैरपेशेवर थे। फ़िल्म का छायांकन 1952 में शुरु हुआ। राय ने अपनी जमापूंजी इस फ़िल्म में लगा दी, इस आशा में कि पहले कुछ शॉट लेने पर कहीं से पैसा मिल जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पथेर पांचाली का छायांकन तीन वर्ष के लम्बे समय में हुआ — जब भी राय या निर्माण प्रबंधक अनिल चौधरी कहीं से पैसों का जुगाड़ कर पाते थे, तभी छायांकन हो पाता था। राय ने ऐसे स्रोतों से धन लेने से मना कर दिया जो कथानक में परिवर्तन कराना चाहते थे या फ़िल्म निर्माता का निरीक्षण करना चाहते थे। 1955 में पश्चिम बंगाल सरकार ने फ़िल्म के लिए कुछ ऋण दिया जिससे आखिरकार फ़िल्म पूरी हुई। सरकार ने भी फ़िल्म में कुछ बदलाव कराने चाहे (वे चाहते थे कि अपु और उसका परिवार एक “विकास परियोजना” में शामिल हों और फ़िल्म सुखान्त हो) लेकिन सत्यजित राय ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया।[१२]

पथेर पांचाली 1955 में प्रदर्शित हुई और बहुत लोकप्रिय रही। भारत और अन्य देशों में भी यह लम्बे समय तक सिनेमा में लगी रही। भारत के आलोचकों ने इसे बहुत सराहा। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने लिखा — “इसकी किसी और भारतीय सिनेमा से तुलना करना निरर्थक है। [...] पथेर पांचाली तो शुद्ध सिनेमा है।”[१३] अमरीका में लिंडसी एंडरसन ने फ़िल्म के बारे में बहुत अच्छी समीक्षा लिखी।[१३] लेकिन सभी आलोचक फ़िल्म के बारे में इतने उत्साहित नहीं थे। फ़्राँस्वा त्रुफ़ो ने कहा — “गंवारों को हाथ से खाना खाते हुए दिखाने वाली फ़िल्म मुझे नहीं देखनी।”[१४] न्यू यॉर्क टाइम्स के प्रभावशाली आलोचक बॉज़्ली क्राउथर ने भी पथेर पांचाली के बारे में बहुत बुरी समीक्षा लिखी। इसके बावजूद यह फ़िल्म अमरीका में बहुत समय तक चली।

राय की अगली फ़िल्म अपराजितो की सफलता के बाद इनका अन्तरराष्ट्रीय कैरियर पूरे जोर-शोर से शुरु हो गया। इस फ़िल्म में एक नवयुवक (अपु) और उसकी माँ की आकांक्षाओं के बीच अक्सर होने वाले खिंचाव को दिखाया गया है। मृणाल सेन और ऋत्विक घटक सहित कई आलोचक इसे पहली फ़िल्म से बेहतर मानते हैं। अपराजितो को वेनिस फ़िल्मोत्सव में स्वर्ण सिंह (Golden Lion) से पुरस्कृत किया गया। अपु त्रयी पूरी करने से पहले राय ने दो और फ़िल्में बनाईं — हास्यप्रद पारश पत्थर और ज़मींदारों के पतन पर आधारित जलसाघर। जलसाघर को इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृतियों में गिना जाता है।[१५]

अपराजितो बनाते हुए राय ने त्रयी बनाने का विचार नहीं किया था, लेकिन वेनिस में उठे एक प्रश्न के बाद उन्हें यह विचार अच्छा लगा।[१६] इस शृंखला की अन्तिम कड़ी अपुर संसार 1959 में बनी। राय ने इस फ़िल्म में दो नए अभिनेताओं, सौमित्र चटर्जी और शर्मिला टैगोर, को मौका दिया। इस फ़िल्म में अपु कोलकाता के एक साधारण मकान में गरीबी में रहता है और अपर्णा के साथ विवाह कर लेता है, जिसके बाद इन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पिछली दो फ़िल्मों की तरह ही कुछ आलोचक इसे त्रयी की सबसे बढ़िया फ़िल्म मानते हैं (राबिन वुड और अपर्णा सेन)।[१७] जब एक बंगाली आलोचक ने अपुर संसार की कठोर आलोचना की तो राय ने इसके प्रत्युत्तर में एक लम्बा लेख लिखा।[१८]


देवी से चारुलता तक (1959–64)

अमल को निहारते हुए चारुलताइस अवधि में राय ने कई विषयों पर फ़िल्में बनाईं, जिनमें शामिल हैं, ब्रिटिश काल पर आधारित देवी (দেবী), रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर एक वृत्तचित्र, हास्यप्रद फ़िल्म महापुरुष (মহাপুরুষ) और मौलिक कथानक पर आधारित इनकी पहली फ़िल्म कंचनजंघा (কাঞ্চনজঙ্ঘা)। इसी दौरान इन्होने कई ऐसी फ़िल्में बनाईं, जिन्हें साथ मिलाकर भारतीय सिनेमा में स्त्रियों का सबसे गहरा चित्रांकन माना जाता है।[१९]

अपुर संसार के बाद राय की पहली फ़िल्म थी देवी, जिसमें इन्होंने हिन्दू समाज में अंधविश्वास के विषय को टटोला है। शर्मिला टैगोर ने इस फ़िल्म के मुख्य पात्र दयामयी की भूमिका निभाई, जिसे उसके ससुर काली का अवतार मानते हैं। राय को चिन्ता थी कि इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड से शायद स्वीकृति नहीं मिले, या उन्हे कुछ दृश्य काटने पड़ें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1961 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर राय ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र बनाया। ठाकुर के जीवन का फ़िल्मांकन बहुत कम ही हुआ था, इसलिए राय को मुख्यतः स्थिर चित्रों का प्रयोग करना पड़ा, जिसमें उनके अनुसार तीन फ़ीचर फ़िल्मों जितना परिश्रम हुआ।[२०] इसी साल में राय ने सुभाष मुखोपाध्याय और अन्य लेखकों के साथ मिलकर बच्चों की पत्रिका सन्देश को पुनर्जीवित किया। इस पत्रिका की शुरुआत इनके दादा ने शुरु की थी और बहुत समय से राय इसके लिए धन जमा करते आ रहे थे।[२१] सन्देश का बांग्ला में दोतरफा मतलब है — एक ख़बर और दूसरा मिठाई। पत्रिका को इसी मूल विचार पर बनाया गया — शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन। राय शीघ्र ही ख़ुद पत्रिका में चित्र बनाने लगे और बच्चों के लिये कहानियाँ और निबन्ध लिखने लगे। आने वाले वर्षों में लेखन इनकी जीविका का प्रमुख साधन बन गया।

1962 में राय ने काँचनजंघा का निर्देशन किया, जिसमें पहली बार इन्होंने मौलिक कथानक पर रंगीन छायांकन किया। इस फ़िल्म में एक उच्च वर्ग के परिवार की कहानी है जो दार्जीलिंग में एक दोपहर बिताते हैं, और प्रयास करते हैं कि सबसे छोटी बेटी का विवाह लंदन में पढ़े एक कमाऊ इंजीनियर के साथ हो जाए। शुरू में इस फ़िल्म को एक विशाल हवेली में चित्रांकन करने का विचार था, लेकिन बाद में राय ने निर्णय किया कि दार्जीलिंग के वातावरण और प्रकाश व धुंध के खेल का प्रयोग करके कथानक के खिंचाव को प्रदर्शित किया जाए। राय ने हंसी में एक बार कहा कि उनकी फ़िल्म का छायांकन किसी भी रोशनी में हो सकता था, लेकिन उसी समय दार्जीलिंग में मौजूद एक व्यावसायिक फ़िल्म दल एक भी दृश्य नहीं शूट कर पाया क्योंकि उन्होने केवल धूप में ही शूटिंग करनी थी।[२२]

1964 में राय ने चारुलता (চারুলতা) फ़िल्म बनाई जिसे बहुत से आलोचक इनकी सबसे निष्णात फ़िल्म मानते है।[२३] यह ठाकुर की लघुकथा नष्टनीड़ पर आधारित है। इसमें 19वीं शताब्दी की एक अकेली स्त्री की कहानी है जिसे अपने देवर अमल से प्रेम होने लगता है। इसे राय की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है। राय ने ख़ुद कहा कि इसमें सबसे कम खामियाँ हैं, और यही एक फ़िल्म है जिसे वे मौका मिलने पर बिलकुल इसी तरह दोबारा बनाएंगे।[२४] चारु के रूप में माधवी मुखर्जी के अभिनय और सुब्रत मित्र और बंसी चन्द्रगुप्ता के काम को बहुत सराहा गया है। इस काल की अन्य फ़िल्में हैं: महानगर, तीन कन्या, अभियान, कापुरुष (कायर) और महापुरुष।


नई दिशाएँ (1965-1982)

चारुलता के बाद के काल में राय ने विविध विषयों पर आधारित फ़िल्में बनाईं, जिनमें शामिल हैं, कल्पनाकथाएँ, विज्ञानकथाएँ, गुप्तचर कथाएँ और ऐतिहासिक नाटक। राय ने फ़िल्मों में नयी तकनीकों पर प्रयोग करना और भारत के समकालीन विषयों पर ध्यान देना शुरु किया। इस काल की पहली मुख्य फ़िल्म थी नायक (নায়ক), जिसमें एक फ़िल्म अभिनेता (उत्तम कुमार) रेल में सफर करते हुए एक महिला पत्रकार (शर्मिला टैगोर) से मिलता है। 24 घंटे की घटनाओं पर आधारित इस फ़िल्म में इस प्रसिद्ध अभिनेता के मनोविज्ञान का अन्वेषण किया गया है। बर्लिन में इस फ़िल्म को आलोचक पुरस्कार मिला, लेकिन अन्य प्रतिक्रियाएँ अधिक उत्साहपूर्ण नहीं रहीं।[२५]

1967 में राय ने एक फ़िल्म का कथानक लिखा, जिसका नाम होना था द एलियन (The Alien, दूरग्रहवासी)। यह इनकी लघुकथा बाँकुबाबुर बंधु (বাঁকুবাবুর বন্ধু, बाँकु बाबु का दोस्त) पर आधारित थी जिसे इन्होंने संदेश (সন্দেশ) पत्रिका के लिए 1962 में लिखा था। इस अमरीका-भारत सह-निर्माण परियोजना की निर्माता कोलम्बिया पिक्चर्स नामक कम्पनी थी। पीटर सेलर्स और मार्लन ब्रैंडो को इसकी मुख्य भूमिकाओं के लिए चुना गया। राय को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनके कथानक के प्रकाशनाधिकार को किसी और ने हड़प लिया था। ब्रैंडो बाद में इस परियोजना से निकल गए और राय का भी इस फ़िल्म से मोह-भंग हो गया।[२६][२७] कोलम्बिया ने 1970 और 80 के दशकों में कई बार इस परियोजना को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया लेकिन बात कभी आगे नहीं बढ़ी। राय ने इस परियोजना की असफलता के कारण 1980 के एक साइट एण्ड साउंड (Sight & Sound) प्रारूप में गिनाए हैं, और अन्य विवरण इनके आधिकारिक जीवनी लेखक एंड्रू रॉबिनसन ने द इनर आइ (The Inner Eye, अन्तर्दृष्टि) में दिये हैं। जब 1982 में ई.टी. फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो राय ने अपने कथानक और इस फ़िल्म में कई समानताएँ देखीं। राय का विश्वास था कि स्टीवन स्पीलबर्ग की यह फ़िल्म उनके कथानक के बिना सम्भव नहीं थी (हालांकि स्पीलबर्ग इसका खण्डन करते हैं)।[२८] 1969 में राय ने व्यावसायिक रूप से अपनी सबसे सफल फ़िल्म बनाई — गुपी गाइन बाघा बाइन (গুপি গাইন বাঘা বাইন, गुपी गाए बाघा बजाए)। यह संगीतमय फ़िल्म इनके दादा द्वारा लिखी एक कहानी पर आधारित है। गायक गूपी और ढोली बाघा को भूतों का राजा तीन वरदान देता है, जिनकी मदद से वे दो पड़ोसी देशों में होने वाले युद्ध को रोकते हैं। यह राय के सबसे खर्चीले उद्यमों में से थी और इसके लिए पूंजी बहुत मुश्किल से मिली। राय को आखिरकार इसे रंगीन बनाने का विचार त्यागना पड़ा।[२९] राय की अगली फ़िल्म थी अरण्येर दिनरात्रि (অরণ্যের দিনরাত্রি, जंगल में दिन-रात), जिसकी संगीत-संरचना चारुलता से भी जटिल मानी जाती है।[३०] इसमें चार ऐसे नवयुवकों की कहानी है जो छुट्टी मनाने जंगल में जाते हैं। इसमें सिमी गरेवाल ने एक जंगली जाति की औरत की भूमिका निभाई है। आलोचक इसे भारतीय मध्यम वर्ग की मानसिकता की छवि मानते हैं।

इसके बाद राय ने समसामयिक बंगाली वास्तविकता पर ध्यान देना शुरु किया। बंगाल में उस समय नक्सलवादी क्रांति जोर पकड़ रही थी। ऐसे समय में नवयुवकों की मानसिकता को लेकर इन्होंने कलकत्ता त्रयी के नाम से जाने वाली तीन फ़िल्में बनाईं — प्रतिद्वंद्वी (প্রতিদ্বন্দ্বী) (1970), सीमाबद्ध (সীমাবদ্ধ) (1971) और जनअरण्य (জনঅরণ্য) (1975)। इन तीनों फ़िल्मों की कल्पना अलग-अलग हुई लेकिन इनके विषय साथ मिलाकर एक त्रयी का रूप लेते हैं। प्रतिद्वंद्वी एक आदर्शवादी नवयुवक की कहानी है जो समाज से मोह-भंग होने पर भी अपने आदर्श नहीं त्यागता है। इसमें राय ने कथा-वर्णन की एक नयी शैली अपनाई, जिसमें इन्होंने नेगेटिव में दृश्य, स्वप्न दृश्य और आकस्मिक फ़्लैश-बैक का उपयोग किया। जनअरण्य फ़िल्म में एक नवयुवक की कहानी है जो जीविका कमाने के लिए भ्रष्ट राहों पर चलने लगता है। सीमाबद्ध में एक सफल युवक अधिक धन कमाने के लिए अपनी नैतिकता छोड़ देता है। राय ने 1970 के दशक में अपनी दो लोकप्रिय कहानियों — सोनार केल्ला (সোনার কেল্লা, स्वर्ण किला) और जॉय बाबा फेलुनाथ (জয় বাবা ফেলুনাথ) — का फ़िल्मांकन किया। दोनों फ़िल्में बच्चों और बड़ों दोनों में बहुत लोकप्रिय रहीं।[३१]

राय ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध पर भी एक फ़िल्म बनाने की सोची, लेकिन बाद में यह विचार त्याग दिया क्योंकि उन्हें राजनीति से अधिक शरणार्थियों के पलायन और हालत को समझने में अधिक रुचि थी।[३२] 1977 में राय ने मुंशी प्रेमचन्द की कहानी पर आधारित शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म बनाई। यह उर्दू भाषा की फ़िल्म 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक वर्ष पहले अवध राज्य में लखनऊ शहर में केन्द्रित है। इसमें भारत के गुलाम बनने के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बॉलीवुड के बहुत से सितारों ने काम किया, जिनमें प्रमुख हैं — संजीव कुमार, सईद जाफ़री, अमजद ख़ान, शबाना आज़मी, विक्टर बैनर्जी और रिचर्ड एटनबरो। 1980 में राय ने गुपी गाइन बाघा बाइन की कहानी को आगे बढ़ाते हुए हीरक राज नामक फ़िल्म बनाई जिसमें हीरे के राजा का राज्य इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान के भारत की ओर इंगित करता है।[३३] इस काल की दो अन्य फ़िल्में थी — लघु फ़िल्म पिकूर डायरी (पिकू की दैनन्दिनी) या पिकु और घंटे-भर लम्बी हिन्दी फ़िल्म सदगति।


अन्तिम काल (1983–1992)

सत्यजित राय के पिता सुकुमार राय, जिन के जीवन पर सत्यजित ने 1987 में एक वृत्तचित्र बनाया।राय बहुत समय से ठाकुर के उपन्यास घरे बाइरे पर आधारित फ़िल्म बनाने की सोच रहे थे।[३४] बीमारी की वजह से इसमें कुछ भाग उत्कृष्ट नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म को सराहना बहुत मिली। 1987 में उन्होंने अपने पिता सुकुमार राय के जीवन पर एक वृत्तचित्र बनाया।

राय की आखिरी तीन फ़िल्में उनकी बीमारी के कारण मुख्यतः आन्तरिक स्थानों में शूट हुईं और इस कारण से एक विशिष्ट शैली का अनुसरण करती हैं। इनमें संवाद अधिक है और इन्हें राय की बाकी फ़िल्मों से निम्न श्रेणी में रखा जाता है। इनमें से पहली, गणशत्रु (গণশত্রু), हेनरिक इबसन के प्रख्यात नाटक एन एनिमी ऑफ़ द पीपल पर आधारित है, और इन तीनों में से सबसे कमजोर मानी जाती है।[३५] 1990 की फ़िल्म शाखा प्रशाखा (শাখা প্রশাখা) में राय ने अपनी पुरानी गुणवत्ता कुछ वापिस प्राप्त की।[३६] इसमें एक बूढ़े आदमी की कहानी है, जिसने अपना पूरा जीवन ईमानदारी से बिताया होता है, लेकिन अपने तीन बेटों के भ्रष्ट आचरण का पता लगने पर उसे केवल अपने चौथे, मानसिक रूप से बीमार, बेटे की संगत रास आती है। राय की अंतिम फ़िल्म आगन्तुक (আগন্তুক) का माहौल हल्का है लेकिन विषय बहुत गूढ़ है। इसमें एक भूला-बिसरा मामा अपनी भांजी से अचानक मिलने आ पहुँचता है, तो उसके आने के वास्तविक कारण पर शंका की जाने लगती है।


फ़िल्म कौशल
सत्यजित राय मानते थे कि कथानक लिखना निर्देशन का अभिन्न अंग है। यह एक कारण है जिसकी वजह से उन्होंने प्रारंभ में बांग्ला के अतिरिक्त किसी भी भाषा में फ़िल्म नहीं बनाई। अन्य भाषाओं में बनी इनकी दोनों फ़िल्मों के लिए इन्होंने पहले अंग्रेजी में कथानक लिखा, जिसे इनके पर्यवेक्षण में अनुवादकों ने हिन्दी या उर्दू में भाषांतरित किया। राय के कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता की दृष्टि भी राय की तरह ही पैनी थी। शुरुआती फ़िल्मों पर इनका प्रभाव इतना महत्त्वपूर्ण था कि राय कथानक पहले अंग्रेजी में लिखते थे ताकि बांग्ला न जानने वाले चन्द्रगुप्ता उसे समझ सकें। शुरुआती फ़िल्मों के छायांकन में सुब्रत मित्र का कार्य बहुत सराहा जाता है, और आलोचक मानते हैं कि अनबन होने के बाद जब मित्र चले गए तो राय की फ़िल्मों के चित्रांकन का स्तर घट गया।[३७] राय ने मित्र की बहुत प्रशंसा की, लेकिन राय इतनी एकाग्रता से फिल्में बनाते थे कि चारुलता के बाद से राय कैमरा ख़ुद ही चलाने लगे, जिसके कारण मित्र ने 1966 से राय के लिए काम करना बंद कर दिया। मित्र ने बाउंस-प्रकाश का सर्वप्रथम प्रयोग किया जिसमें वे प्रकाश को कपड़े पर से उछाल कर वास्तविक प्रतीत होने वाला प्रकाश रच लेते थे। राय ने अपने को फ़्रांसीसी नव तरंग के ज़ाँ-लुक गॉदार और फ़्रांस्वा त्रूफ़ो का भी ऋणी मानते थे, जिनके नए तकनीकी और सिनेमा प्रयोगों का उपयोग राय ने अपनी फ़िल्मों में किया।[३८]

हालांकि दुलाल दत्ता राय के नियमित फ़िल्म संपादक थे, राय अक्सर संपादन के निर्णय ख़ुद ही लेते थे, और दत्ता बाकी काम करते थे। वास्तव में आर्थिक कारणों से और राय के कुशल नियोजन से संपादन अक्सर कैमरे पर ही हो जाता था। शुरु में राय ने अपनी फ़िल्मों के संगीत के लिए लिए रवि शंकर, विलायत ख़ाँ और अली अक़बर ख़ाँ जैसे भारतीय शास्त्रीय संगीतज्ञों के साथ काम किया, लेकिन राय को लगने लगा कि इन संगीतज्ञों को फ़िल्म की अपेक्षा संगीत की साधना में अधिक रुचि है।[३९] साथ ही राय को पाश्चात्य संगीत का भी ज्ञान था जिसका प्रयोग वह फ़िल्मों में करना चाहते थे। इन कारणों से तीन कन्या (তিন কন্যা) के बाद से फ़िल्मों का संगीत भी राय ख़ुद ही रचने लगे। राय ने विभिन्न पृष्ठभूमि वाले अभिनेताओं के साथ काम किया, जिनमें से कुछ विख्यात सितारे थे, तो कुछ ने कभी फ़िल्म देखी तक नहीं थी।[४०] राय को बच्चों के अभिनय के निर्देशन के लिए बहुत सराहा गया है, विशेषत: अपु एवं दुर्गा (पाथेर पांचाली), रतन (पोस्टमास्टर) और मुकुल (सोनार केल्ला)। अभिनेता के कौशल और अनुभव के अनुसार राय का निर्देशन कभी न के बराबर होता था (आगन्तुक में उत्पल दत्त) तो कभी वे अभिनेताओं को कठपुतलियों की तरह प्रयोग करते थे (अपर्णा की भूमिका में शर्मिला टैगोर)।[४१]


समीक्षा एवं प्रतिक्रिया
राय की कृतियों को मानवता और समष्टि से ओत-प्रोत कहा गया है। इनमें बाहरी सरलता के पीछे अक्सर गहरी जटिलता छिपी होती है।[४२][४३] इनकी कृतियों को अन्यान्य शब्दों में सराहा गया है। अकिरा कुरोसावा ने कहा, “राय का सिनेमा न देखना इस जगत में सूर्य या चन्द्रमा को देखे बिना रहने के समान है।” आलोचकों ने इनकी कृतियों को अन्य कई कलाकारों से तुलना की है — आंतोन चेखव, ज़ाँ रन्वार, वित्तोरियो दे सिका, हावर्ड हॉक्स, मोत्सार्ट, यहाँ तक कि शेक्सपियर के समतुल्य पाया गया है।[४४][४५] नाइपॉल ने शतरंज के खिलाड़ी के एक दृश्य की तुलना शेक्सपियर के नाटकों से की है – “केवल तीन सौ शब्द बोले गए, लेकिन इतने में ही अद्भुत घटनाएँ हो गईं!”[४६] जिन आलोचकों को राय की फ़िल्में सुरुचिपूर्ण नहीं लगतीं, वे भी मानते हैं कि राय एक सम्पूर्ण संस्कृति की छवि फ़िल्म पर उतारने में अद्वितीय थे।[४७]

राय की आलोचना मुख्यतः इनकी फ़िल्मों की गति को लेकर की जाती है। आलोचक कहते हैं कि ये एक “राजसी घोंघे” की गति से चलती हैं।[४८] राय ने ख़ुद माना कि वे इस गति के बारे में कुछ नहीं कर सकते, लेकिन कुरोसावा ने इनका पक्ष लेते हुए कहा, “इन्हें धीमा नहीं कहा जा सकता। ये तो विशाल नदी की तरह शान्ति से बहती हैं।” इसके अतिरिक्त कुछ आलोचक इनकी मानवता को सादा और इनके कार्यों को आधुनिकता-विरोधी मानते हैं और कहते हैं कि इनकी फ़िल्मों में अभिव्यक्ति की नई शैलियाँ नहीं नज़र आती हैं। वे कहते हैं कि राय “मान लेते हैं कि दर्शक ऐसी फ़िल्म में रुचि रखेंगे जो केवल चरित्रों पर केन्द्रित रहती है, बजाए ऐसी फ़िल्म के जो उनके जीवन में नए मोड़ लाती है।”[४९]

राय की आलोचना समाजवादी विचारधाराओं के राजनेताओं ने भी की है। इनके अनुसार राय पिछड़े समुदायों के लोगों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध नहीं थे, बल्कि अपनी फ़िल्मों में गरीबी का सौन्दर्यीकरण करते थे। ये अपनी कहानियों में द्वन्द्व और संघर्ष को सुलझाने के तरीके भी नहीं सुझाते थे। 1960 के दशक में राय और मृणाल सेन के बीच एक सार्वजनिक बहस हुई। मृणाल सेन स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी थे और उनके अनुसार राय ने उत्तम कुमार जैसे प्रसिद्ध अभिनेता के साथ फ़िल्म बनाकर अपने आदर्शों के साथ समझौता किया। राय ने पलटकर जवाब दिया कि सेन अपनी फ़िल्मों में केवल बंगाली मध्यम वर्ग को ही निशाना बनाते हैं क्योंकि इस वर्ग की आलोचना करना आसान है। 1980 में सांसद एवं अभिनेत्री नरगिस ने राय की खुलकर आलोचना की कि ये “गरीबी की निर्यात” कर रहे हैं, और इनसे माँग की कि ये आधुनिक भारत को दर्शाती हुई फ़िल्में बनाएँ।[५०]


साहित्यिक कृतियाँ
मुख्य लेख: सत्यजित राय की साहित्यिक कृतियाँ

सत्यजित राय की कहानियों के संकलन का मुखपृष्ठराय ने बांग्ला भाषा के बाल-साहित्य में दो लोकप्रिय चरित्रों की रचना की — गुप्तचर फेलुदा (ফেলুদা) और वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर शंकु। इन्होंने कई लघु-कथाएँ भी लिखीं, जो बारह-बारह कहानियों के संकलन में प्रकाशित होती थीं, और सदा उनके नाम में बारह से संबंधित शब्दों का खेल रहता था। उदाहरण के लिए एकेर पिठे दुइ (একের পিঠে দুই, एक के ऊपर दो)। राय को पहेलियों और बहुअर्थी शब्दों के खेल से बहुत प्रेम था। इसे इनकी कहानियों में भी देखा जा सकता है – फेलुदा को अक्सर मामले की तह तक जाने के लिए पहेलियाँ सुलझानी पड़ती हैं। शर्लक होम्स और डॉक्टर वाटसन की तरह फेलुदा की कहानियों का वर्णन उसका चचेरा भाई तोपसे करता है। प्रोफेसर शंकु की विज्ञानकथाएँ एक दैनन्दिनी के रूप में हैं जो शंकु के अचानक गायब हो जाने के बाद मिलती है। राय ने इन कहानियों में अज्ञात और रोमांचक तत्वों को भीतर तक टटोला है, जो उनकी फ़िल्मों में नहीं देखने को मिलता है।[५१] इनकी लगभग सभी कहानियाँ हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं।

राय के लगभग सभी कथानक भी बांग्ला भाषा में साहित्यिक पत्रिका एकशान (একশান) में प्रकाशित हो चुके हैं। राय ने 1982 में आत्मकथा लिखी जखन छोटो छिलम (जब मैं छोटा था)। इसके अतिरिक्त इन्होंने फ़िल्मों के विषय पर कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से प्रमुख है आवर फ़िल्म्स, देयर फ़िल्म्स (Our Films, Their Films, हमारी फ़िल्में, उनकी फ़िल्में)। 1976 में प्रकाशित इस पुस्तक में राय की लिखी आलोचनाओं का संकलन है। इसके पहले भाग में भारतीय सिनेमा का विवरण है, और दूसरा भाग हॉलीवुड पर केन्द्रित है। राय ने चार्ली चैपलिन और अकीरा कुरोसावा जैसे निर्देशकों और इतालवी नवयथार्थवाद जैसे विषयों पर विशेष ध्यान दिया है। 1976 में ही इन्होंने एक और पुस्तक प्रकाशित की — विषय चलचित्र (বিষয় চলচ্চিত্র) जिसमें सिनेमा के विभिन्न पहलुओं पर इनके चिंतन का संक्षिप्त विवरण है। इसके अतिरिक्त इनकी एक और पुस्तक एकेई बोले शूटिंग (একেই বলে শুটিং, इसको शूटिंग कहते है) (1979) और फ़िल्मों पर अन्य निबंध भी प्रकाशित हुए हैं।

राय ने बेतुकी कविताओं का एक संकलन तोड़ाय बाँधा घोड़ार डिम (তোড়ায় বাঁধা ঘোড়ার ডিম, घोड़े के अण्डों का गुच्छा) भी लिखा है, जिसमें लुइस कैरल की कविता जैबरवॉकी का अनुवाद भी शामिल है। इन्होंने बांग्ला में मुल्ला नसरुद्दीन की कहानियों का संकलन भी प्रकाशित किया।


सम्मान एवं पुरस्कार

निधन के कुछ ही दिन पहले राय अकादमी पुरस्कार के साथ मुख्य लेख: सत्यजित राय को मिले सम्मान
राय को जीवन में अनेकों पुरस्कार और सम्मान मिले। ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय ने इन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की। चार्ली चैपलिन के बाद ये इस सम्मान को पाने वाले पहले फ़िल्म निर्देशक थे। इन्हें 1985 में दादासाहब फाल्के पुरस्कार और 1987 में फ़्राँस के लेज़्यों द’ऑनु पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मृत्यु से कुछ समय पहले इन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार और भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न प्रदान किये गए। मरणोपरांत सैन फ़्रैंसिस्को अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में इन्हें निर्देशन में जीवन-पर्यन्त उपलब्धि-स्वरूप अकिरा कुरोसावा पुरस्कार मिला जिसे इनकी ओर से शर्मिला टैगोर ने ग्रहण किया।[५२] सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्होंने जो फ़िल्में बनाईं उनमें पहले जैसी ओजस्विता नहीं थी। उनका व्यक्तिगत जीवन कभी मीडिया के निशाने पर नहीं रहा लेकिन कुछ का विश्वास है कि 1960 के दशक में फ़िल्म अभिनेत्री माधवी मुखर्जी से उनके संबंध रहे।[५३]


धरोहर

सत्यजित राय भारत और विश्वभर के बंगाली समुदाय के लिए एक सांस्कृतिक प्रतीक हैं। बंगाली सिनेमा पर राय ने अमिट छाप छोड़ी है। बहुत से बांग्ला निर्देशक इनके कार्य से प्रेरित हुए हैं — अपर्णा सेन, ऋतुपर्ण घोष, गौतम घोष, तारिक़ मसूद और तन्वीर मुकम्मल। भारतीय सिनेमा पर इनके प्रभाव को हर शैली के निर्देशक मानते हैं, जिनमें बुद्धदेव दासगुप्ता, मृणाल सेन[५४] और अदूर गोपालकृष्णन शामिल हैं। भारत के बाहर भी मार्टिन सोर्सीसी,[५५] जेम्स आइवरी,[५६] अब्बास कियारोस्तामी और एलिया काज़ान जैसे निर्देशक भी इनकी शैली से प्रभावित हुए हैं। इरा सैक्स की फ़िल्म फ़ॉर्टी शेड्स ऑफ़ ब्लु (Forty Sheds of Blue, चालीस तरह के नीले रंग) बहुत कुछ चारुलता पर आधारित थी। राय की कृतियों के हवाले अन्य कई फ़िल्मों में मिलते हैं, जैसे सेक्रेड ईविल (Sacred Evil, पावन दुष्टता),[५७] दीपा मेहता की तत्व त्रयी और ज़ाँ-लुक गॉडार की कई कृतियाँ।[५८]

1993 में यूसी सांता क्रूज़ ने राय की फ़िल्मों और उन पर आधारित साहित्य का संकलन करना प्रारंभ किया। 1995 में भारत सरकार ने फ़िल्मों से सम्बन्धित अध्ययन के लिए सत्यजित राय फ़िल्म एवं टेलिविज़न संस्थान की स्थापना की। लंदन फ़िल्मोत्सव में नियमित रूप से एक ऐसे निर्देशक को सत्यजित राय पुरस्कार दिया जाता है जिसने पहली फ़िल्म में ही “राय की दृष्टि की कला, संवेदना और मानवता” को अपनाया हो। 2007 में, ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन घोषणा की कि उनकी दो फेलुदा कहानियों पर रेडियो कार्यक्रम तैयार किए जाएँगे।[५९]


सांस्कृतिक हवाले
अमरीकन कार्टून धारावाहिक द सिम्प्सन्स में अपु नहसपीमापेतिलोन के चरित्र का नाम राय के सम्मान में रखा गया था। राय और माधवी मुखर्जी पहले भारतीय फ़िल्म व्यक्तित्व थे जिनकी तस्वीर किसी विदेशी डाकटिकट (डोमिनिका देश) पर छपी। कई साहित्यिक कृतियों में राय की फ़िल्मों का हवाला दिया गया है — सॉल बेलो का उपन्यास हर्ज़ोग और जे. एम. कोटज़ी का यूथ (यौवन)। सलमान रशदी के बाल-उपन्यास हारुन एंड द सी ऑफ़ स्टोरीज़ (Harun and the Sea of Stories, हारुन और कहानियों का सागर) में दो मछलियों का नाम “गुपी” और “बाघा” है।





सत्यजित राय की कृतियाँ
फ़िल्में
पथेर पांचाली (1955) • अपराजितो (1957) • पारश पत्थर (1958) • जलसाघर (1958) • अपुर संसार (1959) • देवी (1960) • तीन कन्या (1961) • रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1961) • कांचनजंघा (1962) • अभियान (1962) • महानगर (1963) • चारुलता (1964) • टू (1965) • कापुरुष (1965) • महापुरुष (1965) • नायक (1966) • चिड़ियाखाना (1967) • गुपी गाइन बाघा बाइन (1969) • अरण्येर दिनरात्रि (1970) • प्रतिद्वंद्वी (1971) • सीमाबद्ध (1971) • सिक्किम (1971) • द इनर आइ (1972) • अशनि संकेत (1973) • सोनार केल्ला (1974) • जन अरण्य (1976) • बाला (1976) • शतरंज के खिलाड़ी (1977) • जॉय बाबा फेलुनाथ (1978) • हीरक राजार देशे (1980) • पिकूर डायरी (1981) • सद्गति (1981) • घरे बाइरे (1984) • सुकुमार राय (1987) • गणशत्रु (1989) • शाखा प्रशाखा (1990) • आगन्तुक (1991)

साहित्य
सिनेमा सम्बंधित: आवर फ़िल्म्स, देयर फ़िल्म्स • विषय चलचित्र • एकेइ बोले शूटिंग — फेलुदा सीरीज़: फेलुदार गोयेन्दागिरि (1965-1966) •
बादशाही आंटि (1966-1967) • कैलास चौधुरीर पाथर (1967) • शेयाल देवता रहस्य (1970) • गंगटोक गंडगोल (1970) • सोनार केल्ला (1971) • बाक्स रहस्य (1972) • कैलासे केलेंकारी (1973) • समाद्दारेर चाबि (1973) • रॉयल बंगाल रहस्य (1974) • घुरघुटियार घटना (1975) • जॉय बाबा फेलुनाथ (1975) • बोम्बाइयेर बोम्बेटे (1976) • गोँसाइपुर सरगरम (1976) • गोरस्थाने साबधान (1977) • छिन्नमस्तार अभिशाप (1978) • हत्यापुरी (1979) • गोलकधाम रहस्य (1980) • जोतो कांड काठमांडुते (1980) • नेपोलियनेर चिठि (1981) • टिनटोरेटोर जीशु (1982) • अम्बर सेन अन्तर्धान रहस्य (1983) • जाहांगीरेर स्वर्णमुद्रा (1983) • एबार कांड केदारनाथे (1984) • बोसपुकुरे खुनखारापि (1985) • दार्जीलिंग जमजमाट (1986) • अप्सरा थियेटरेर मामला (1987) • भूस्वर्ग भयंकर (1987) • शकुन्तलार कण्ठहार (1988) • लंडने फेलुदा (1989) • गोलापी मुक्ता रहस्य (1989) • डॉ. मुनसीर डायरी (1990) • नयन रहस्य (1990) • रॉबर्टसनेर रूबी (1992) • इन्द्रजाल रहस्य (1995) • फेलुदा (असंपूर्ण; 1995) • फेलुदा वन फेलुदा टू • डबल फेलुदा (संकलन) • फेलुदा प्लस फेलुदा (संकलन) — प्रोफ़ेसर शंकु — तारिनी खुरो — अन्य...

Tuesday, April 21, 2009

मोबाइल क्रांति




आज के इस वैज्ञानिक युग में मनुष्य द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व आविष्कारों के कारण को जन्म दिया जा रहा है। कहीं टेलीविजन का आविष्कार तो कहीं कंप्यूटर का आविष्कार। यह एक तरफ से समुन्द्र की गहराई को मापता है वहीं दूसरी ओर सुदूर आकाश में ऊंचाई को मापता हुआ अन्तरिक्ष की सैर करता है। विज्ञान के नित हो रहे नये प्रयोगों ने मानव जीवन में क्रांति ला दी है। उनमें से एक है - मोबाइल क्रांति। मोबाइल फोन के साथ मानव जीवन में क्रांति लाने के साथ मानव समाज को एक-दूसरे के निकट लाने का कार्य भी किया है। आज के इस भैतिकवादी युग में मनुष्य के पास समय का अभाव है। ऐसे में वह अपने मित्रों, सगे सम्बन्धियों या परिवार वालों की पहुंच में रहते है। लगभग पांच वर्ष पहले मोबाइल फोन बड़ी-बड़ी हस्तियों, उद्यमियों व धनाढ़य लोगों के पास होता था। लेकिन वर्तमान युग में मोबाइल ने इतनी प्रगति की है कि आम आदमी की भी जरूरत बनकर उसके पास मौजूद है। बाद में पक्षियों के द्वारा संदेश भजे जाते थे। धीरे-धीरे डाक व्यवस्था से भी संचार होने लगा। लेकिन मोबाइल में आई क्रांति के कारण यह इतना सस्ता हो गया कि आम आदमी भी इसे आसानी से खरीद सकता है। बाजार में लगी मोबाइल कंपनियों की होड़ के कारण यह संचार का अत्यधिक सस्ता मायम हो गया है। विज्ञान की अभूतपूर्व तरक्की के कारण असमें ऐसी सुविधाएं दी गई है जिससे व्यक्ति का भरपूर मनोरंजन होता है। इसमें ऑडियो, वीडियो संदेश और संसार का सबसे बड़ा माध्यम इंटरनेट जैसी सुविधांए मोबाइल के जरिए मुहैया हो रही है।
मोबाइल क्रांति के कारण वर्तमान युवा वर्ग इसके प्रति अत्यधिक आकर्षित हुआ है। क्योंकि मोबाइल कम्पनियों ने ऐसे-ऐसे मोबाइलों को बाजार में उतारा हैं। जा युवा वर्ग की पहली पसंद बनते जा रहे हैं। लेकिन आज मोबाइल के टंकण पटल पर प्रियजन को भेज दिया जाता है। वहीं इसी पक्ष का दूसरा पहलू यह भी है कि मोबाइल के सही प्रयोग के अलावा इसका दुरूपयोग भी होने लगा है। मोबाइल कम्पनियों ने इसमें इतनी सुविधांए प्रदान कर दी है कि जिससे लोग इनका गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। जैसे किसी को वेवजह तंग करना, हत्या व बैंक डकैती आदि घटनांए बढ़ी हैं। इस माध्यम से कई बार लोगों को गलत सूचनांए दे दी जाती हैं। मोबाइल कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की लत बन चुका है।
मोबाइल क्रांति के कारण मोबाइल कम्पनियों में प्रतिस्पर्धा की भावना है। इसी के चलते कई कम्पनियां जल्दी-जल्दी में मोबाइल में गलत उपकरण डाल देती है। जिसके कारण मोबाइल बैटरियों के प्रयोग में दिक्कतें आने लगी हैं। और इसी के कारण कई लोगों को भारी नुकशान उठाना पड़ा है। पिछले दिनों नोकिया कम्पनी की कई बैटरियों में विस्फोट हुए थे। जिसके कारण लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। मोबाइल में कंपन के आने के कारण दिल की बीमारियां पनपने लगने लगी है। और इसका लगातार प्रयोग करते रहने से मुख कैंसर भी हो सकता है। लेकिन मोबाइल के प्रचलन से गांव के लोगों में काफी हद तक सुधार हुआ है। उनके रहन-सहन, आचार-विचार व भाषा में परिवर्तन आया है। लोगों के व्यवहार में सुधार हुआ है। इसके तमाम दोषों को दरकिनार करते हुए इसकी अच्छाईयों को ग्रहण करना चाहिए। निसंदेह मोबाइल फोन आज के मनुष्य की कमजोरी बन गया है जो मनुष्य को तमाम सुविधांए प्रदान करने के बावजूद भी कुछ खामियों के कारण मन में संदेह पैदा करता है। इस खामियों को नजरअंदाज कर हम विज्ञान का मार्ग प्रस्त करना होगा।
संदीप कंवल भुरटाना
एम ए एम सी द्वितीय वर्ष
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
सिरसा (हरियाणा)

पत्रकारिता : अर्थ और परिभाषा


पत्रकारिता : अर्थ और परिभाषा
पत्रकारिता के लिए अंग्रेजी का शब्द है,'जर्नलिज्म',
जर्नलिज्म शब्द की व्युत्पति जर्नल शब्द से हुई है। जर्नल शब्द का अर्थ दैनिकी, दैनन्दिनी, रोजनामचा होता है। पत्रकारिता के सन्दर्भ में इसका अर्थ पत्र, अखबार तथा दैनिक होता है।
सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी के पूर्व अंग्रेजी शब्द पीरिऑडिकल अर्थात्‌ नियतकालीन का प्रयोग होता है। पश्चात्‌ में इसका स्थान लैटिन शब्द डियूरनल और जर्नल ने ले लिया। दैनन्दिन गतिविधियों और राजकीय क्रिया-कलाप का समावेश जर्नल में होता है। इसके अन्तर्गत समाविष्ट विषयों को बीसवीं शताब्दी में गम्भीरता प्रदान की गयी। समालोचना और शोध-विषयों के प्रतिनिधि के रूप में जर्नल को मान्यता दी गयी है।
फ्रेंच भाषा का एक शब्द है जर्नी। जर्नीशब्द से भी जर्नलिज्म शब्द की उत्पति मानी जाती है जर्नी शब्दा का अर्थ होता है, दैनन्दिन गतिविधियों अथवा घटनाओं की विवरण-प्रस्तुति।
जर्नल को व्यापकता प्रदान करने वाला शब्द जर्नलिज्म बहुआयामी है। लेख्न, सम्पादन, संकलन तथा इनसे सम्बद्व आकाशवाणी, दूरदर्शन, वीडियो, फिल्म इत्यादि मीडिया भी अन्तर्गत आते हैं।
विभिन्न द्विानों ने पत्रकारिता की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी है। आइए, उनके दृष्टिकोण से अवगत हों!
1. सामयिक ज्ञान के व्यवसाय को पत्रकारिता कहते हैं। इस व्यवसाय में आवश्यक तथ्यों की प्राप्ति, सजगतापूर्वक उनका मूल्यांकन तथा सम्यक्‌ प्रस्तुति होती है।
- सी.जी.मूलर
2. कला, वृति और जन-सेवा ही पत्रकारिता है।
- डब्ल्यू.टी. स्टीड
3. प्रकाशन, सम्पादन, लेखन अथवा प्रसारण सहितसमाचार माध्यम के संचालन के व्यवसाय को पत्रकारिता कहते हैं।
- न्यू वेवस्टर शब्दकोश
4. पत्रकारिता पांचवां वेद है, जिसके द्वारा ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी बातों को जानकर अपने बन्द मस्तिष्क को खोलते हैं।
- इन्दे विद्याचस्पति
वास्तव में अब समय के साथ-साथ, समाचार पत्र केवल सुबह- शाम की वार्ता के अथवा चर्चा के विषय नहीं रह गये हैं, अपितु वे ज्ञान के प्रसार का महत्वपूर्ण साधन तथा जनता के चिन्तन और आचरण की दृष्टि से लोकतन्त्रीय बनाने का भी सबसे महत्वपूर्ण माध्यम हैं। आरम्भ के दिनों मे समाचारपत्रों का काम केवल लोगों की जानकारी देना और अपने चारों ओर देश अथवा विश्व में जो कुछ घट रहा है, उसके प्रति सचेत करना था, किन्तु जिस तरह किसी भी शिक्षा-प्रद माध्यम का एक अथवा अनेक उद्देश्य के लिए सदुपयोग अथवा दुरूपयोग हो सकता है, उसी तरह समचारपत्राों को 'फोर्थ एस्टेट कहा था और हम भी सहज ही इन्हें लोकतन्त्रीय शासन-तन्त्र का चौथा सबसे महत्वपूर्ण अंग मान सकते है। अन्य तीन स्तम्भ हैं- 1. नगरपालिका 2. न्यायपालिका। उन्नीसवीं शताब्दी में समाचारपत्रों के राजनीतिक अस्तित्व का पता चला। लाडर्स, टेम्पोरल तथा कॉमन्स के बाद पत्रकारिता का महत्व सर्वोपरि है। यदि समाचारपत्र स्वतन्त्र हैं ओर उनके समाचार निष्पक्ष हैं, तो इससे लोगों का मस्तिष्क हर प्रकार के प्रभावों ओर विचारों के लिए खुला रह सकता है। सच तो यह है कि आज-कल समाचारों में अलक्ष्य विचार और यत्र-तत्र, ताड.-मरोड. रहा करती है। इस प्रकार आज के समाचारनपत्रों का पहला उद्देश्य पाठक-पाठिकाओं की राय को किसी न किसी पक्ष में बदलाना हो गया है। वे जनता को बने-बनाये, गढ़-गढ़ाये विचार और पके-पकाये विचार दिया करते है। लोग भी उनको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेते है।, क्योंकि आम आदमी के पास न तो इतनी बुद्वि है, न इतने साधन और समय हैं कि वह समाचारों की सच्चाई को जान सकें, वहीं आज के लिखे-पढ़े लोगों की भी यह कमजोरी है कि वे सुनी हुई बात की बजाय छपी हुई बात पर अधिक भरोसा कर लेते हैं। यही कारण हैं कि लोग अपनी बात के समर्थन में समाचारपत्रों का सन्दर्भ दिया करते है। वे यह भूल जाते हैं कि समाचारपत्रों का सन्दर्भ दिया करते है। वह भूल जाते हे। कि समाचारपत्रों ने अपने दल की नीति के अनुसार अथवा अपनी ही नीति के अनुसार समाचार में झूठ भर दिये है। एक बार विचार का प्रसारण हो गया तो साधनों के अभाव में झूठ और सच को दूध और पानी की तरह अलग-अलग कर पाना कठिन हो जाता है।
यदि कुता आादमी को काट ले तो यह कोई समाचार नहीं, किनतु यदि आदमी कुते को काट ले जो यह समाचार है।
समाचारपत्रों का काम केवल ऐसी घटनाओं की जानकारी देना नहीं, जिनमें मानवी अभिरूचि हो ओर किसी समस्या में बौद्विक और भावनात्मक रूप से शामिल हों, बल्कि कहीं इससे अधिक है।
ऐसे में, सहजता के साथ मस्तिष्क में एक प्रश्न कौंधता है, क्या समाचारपत्राके को वास्तव में स्वतन्त्र और स्वाधीन बनाया जा सकता है+। इसमें निश्चय ही सन्देह है, क्यांकि आज कल समाचार पत्र बड़े-बड़े व्यापारियों के हाथ में है। औंर ये आज 'उद्योग' बन गयें हैं। अन्य सब उद्योगों की तरह इन्हें भी आज लाभ के उद्देश्य से चलाया जाता है और इन सभी तरीकों से चलाया जाता है, जो किसी उद्योग के विकास के लिए आवश्यक होते हैं, फिर आज उस प्राकर की पत्रकारिता अथवा अंग्रेजी में 'येलो जर्नलिज्म' कहा जाता है। यही कारण है कि सही मायने में पत्रकारिता का उद्देश्य लेकर चन?लने वाले पत्र प्रायः पूर्णत सफल नहीं हो पाते।
इस पीत- पत्रकारिता के सन्दर्भ में भी एक धटनाक्रम है। जो इस प्रकार है। संयुक्त राज्य अमेंरिका में एक पत्रिका निकली थी। उसका कागज ही पीले रंक का था। उसका व्यावसायिक पक्ष यह था कि बच्चों की सहज सुप्रवृतियों

बिहार का शोक कोसी का तांडव



भारत देश में प्राकृतिक आपदाओं की कमी नहीं हैं। कभी भूकंप तो कभी बाढ़ आए दिनों समाचार-पत्र व टेलीविजन की सुर्खियों में छाए रहते हैं। लेकिन भारतीय लोगों की मानवता भी इतनी ही बलवान है कि जब किसी भी राज्य में कोई भी प्राकृतिक आपदा आती है तो दूर मीलों बैठे भारतीयों का हृदय पिंघलने लगता है। आज फिर एक राज्य प्राकृतिक विपदा की चपेट में आ गया हैं। चारों तरफ पानी ही पानी हो गया है।
आप समझ ही गए होगें दोस्तों मैं उसी बिहार का जिक्र कर रहा हूॅं। जहां पर बिहार का शोक कहीं जाने वाली कोसी नदी में कटाव आने और फिर एकदम नहर से सटे सभी इलाकों पानी ही पानी करने वाली नदी ने एक चलते जनजीवन को पल भर में ही नष्ट कर दिया। सब जगह बचाव की गुहार लगाई की जा रही है। भारतीय सेना ने मौके पर पहुंच कर अनेकों भारतीयों को डूबने से बचाया तथा देश का भविष्य छोट-छोटे बच्चों को नाव में बिठाकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। अपने गांवो में आराम से जीवन बसर करने वालों परिवारों को प्रकृति ने आम जनजीवन का अस्त-व्यस्त कर दिया। किसी का बच्चा कही पर, कई व्यक्तियों का पता ही नहीं चला कि वह मृत हैं या जीवित हैं। अनेक हंसते-खेलते परिवार काल का ग्रास बन गए।
अब वहां पर हालात यह है कि लोगों के पास खाने के लिए भोजन नहीं है, तन ढ़ापने के लिए वस्त्र नहीं हैं व रहने के लिए मकान नहीं हैं। लेकिन इन बातों का दर्द एक सच्चा भारतीय ही समझ सकता है। जब वह सच्चे दिल और तन, मन, धन से अपने देश को समर्पित है। उनका दर्द तो वहीं समझ सकाता हैं जिसने अपने आगे की तरफ सोचकर विचरण किया हो। लेकिन एक सच्चे भारतीय का फ़र्ज बनता है कि वो चाहे उत्तर में हो या दक्षिण में हो, पूर्व में या पश्चिम में हो कहीं पर भी देश की हित की बात आती है व कोई प्राकृतिक विपदा आती है। हमें देश की रक्षा करने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। लेकिन इस विनाशक बाढ के कारण घरबार, पैसा, किसानों की फसल सब कुछ चला गया। हमें उनकी मदद करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए।
इसलिए मैं तो यहीं कहना चाहूंगा कि हमारे पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विभागाध्यक्ष व विश्वविद्यालय के शिक्षकों की आपसी सहमति से बिहार में बाढ़ पीड़ितों के लिए दान देने की एक मुहिम चलाई है। उन असहारा बच्चों को थोड़ा बहुुत दान करके सहारा देने का काम करें।
सन्दीप कंवल भुरटाना
पत्रकारिता व जनसंचार विभाग
सिरसा (हरियाणा)